काका हाथरसी की प्रसिद्ध हास्य कविताएँ ! Kaka Hathrasi Poems in Hindi 2024 – Poetry Dukan

हैलो दोस्तो आज का इस लेख में हम बत करने वाले है Kaka Hathrasi Poems in Hindi काका हाथरशी के जीवन परिचय के बारे में और काका हाथरशी कविताएं हिंदी में तो चलो शुरू करते हैं काका हाथरशी कविताएं हिंदी में Kaka Hathrasi Poems in Hindi 

जीवन परिचय – Kaka Hathhrasi Biography in Hindi

काका हाथरसी (Kaka Hathrasi Poems in Hindi) का जन्म 18 सितम्बर 1906 को उतर प्रदेश के ‘हाथरस’ में हुआ था। उनके पिता का नाम शिवलाल गर्ग और माता का नाम बर्फी देवी था उनका नाम प्रभु गर्ग रखा गया। जन्म के कुछ समय बाद ही उनके पिता का निधन हो गया उनकी माताजी ने काका हाथरसी का पालन पोषण किया। सन 1946 में काका का पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। उसके बाद उनकी हास्य की कविताएं जनसामान्य में बहुत प्रसिद्ध हुईं। उनकी मृत्यु 18 सितम्बर सन 1995 को हुई। Kaka Hathrasi Poems in Hindi

कुछ प्रमुख कृतिया :-  काका के कारतूस, काकादूत, हंसगुल्ले, काका के कहकहे, 

काका हाथरसी की प्रसिद्ध हास्य कविताएँ ! Kaka Hathrasi Poems in Hindi 2023 - Poetry Dukanकाका हाथरसी हास्य कविताएँ

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काका हाथरसी हास्य कविताएँ (Kaka Hathrasi Poems in Hindi)

 

 नाम बड़े दर्शन छोटे/काका हाथरसी

 नाम-रूप के भेद पर कभी किया है गौर?

नाम मिला कुछ और तो, शक्ल-अक्ल कुछ और।

 शक्ल-अक्ल कुछ और, नैनसुख देखे काने,

बाबू सुंदरलाल बनाए ऐंचकताने।

●   कहं ‘काका’ कवि, दयारामजी मारे मच्छर,

विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर।

 मुंशी चंदालाल का तारकोल-सा रूप,

श्यामलाल का रंग है, जैसे खिलती धूप।

●   जैसे खिलती धूप, सजे बुश्शर्ट हैण्ट में-

ज्ञानचंद छ्ह बार फेल हो गए टैंथ में।

 कहं ‘काका’ ज्वालाप्रसादजी बिल्कुल ठंडे,

पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे।

●   देख, अशर्फीलाल के घर में टूटी खाट,

सेठ छदम्मीलाल के मील चल रहे आठ।

 मील चल रहे आठ, कर्म के मिटें न लेखे,

धनीरामजी हमने प्राय: निर्धन देखे।

 ●  कहं ‘काका’ कवि, दूल्हेराम मर गए कंवारे,

बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बिचारे।

 दीन श्रमिक भड़का दिए, करवा दी हड़ताल,

मिल-मालिक से खा गए रिश्वत दीनदयाल।

●   रिश्वत दीनदयाल, करम को ठोंक रहे हैं,

ठाकुर शेरसिंह पर कुत्ते भोंक रहे हैं।

‘काका’ छ्ह फिट लंबे छोटूराम बनाए,

नाम दिगम्बरसिंह वस्त्र ग्यारह लटकाए।

 ●   पेट न अपना भर सके जीवन-भर जगपाल,

बिना सूंड के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल।

 मिलें गणेशीलाल, पैंट की क्रीज सम्हारी-

बैग कुली को दिया चले मिस्टर गिरिधारी।

●   कहं ‘काका’ कविराय, करें लाखों का सट्टा,

नाम हवेलीराम किराए का है अट्टा।

 दूर युद्ध से भागते, नाम रखा रणधीर,

भागचंद की आज तक सोई है तकदीर।

●   सोई है तकदीर, बहुत-से देखे-भाले,

निकले प्रिय सुखदेव सभी, दु:ख देने वाले।

 कहं ‘काका’ कविराय, आंकड़े बिल्कुल सच्चे

●   चतुरसेन बुद्धू मिले, बुद्धसेन निर्बुद्ध,

श्री आनन्दीलालजी रहें सर्वदा क्रुद्ध।

 रहें सर्वदा क्रुद्ध, मास्टर चक्कर खाते,

इंसानों को मुंशी, तोताराम पढ़ाते,

कहं ‘काका’, बलवीरसिंहजी लटे हुए हैं,

थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुए हैं।

              ●  बेच रहे हैं कोयला, लाला हीरालाल,

सूखे गंगारामजी, रूखे मक्खनलाल।

 रूखे मक्खनलाल, झींकते दादा-दादी-

निकले बेटा आसाराम निराशावादी।

●   कहं ‘काका’, कवि भीमसेन पिद्दी-से दिखते,

कविवर ‘दिनकर’ छायावादी कविता लिखते।

आकुल-व्याकुल दीखते शर्मा परमानंद,

कार्य अधूरा छोड़कर भागे पूरनचंद।

 भागे पूरनचंद, अमरजी मरते देखे,

मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे।

●   कहं ‘काका’ भण्डारसिंहजी रोते-थोते,

बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते।

शीला जीजी लड़ रही, सरला करती शोर,

कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन निकलीं बड़ी कठोर।

निकलीं बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली

 सुधा सहेली अमृतबाई सुनीं विषैली।

 ●  कहं ‘काका’ कवि, बाबू जी क्या देखा तुमने?

बल्ली जैसी मिस लल्ली देखी है हमने।

 तेजपालजी मौथरे, मरियल-से मलखान,

लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान।

 करी न कौड़ी दान, बात अचरज की भाई,

वंशीधर ने जीवन-भर वंशी न बजाई।

 ●  कहं ‘काका’ कवि, फूलचंदनजी इतने भारी

दर्शन करके कुर्सी टूट जाय बेचारी।

 खट्टे-खारी-खुरखुरे मृदुलाजी के बैन,

मृगनैनी के देखिए चिलगोजा-से नैन।

 चिलगोजा-से नैन, शांता करती दंगा,

नल पर न्हातीं गोदावरी, गोमती, गंगा।

●   कहं ‘काका’ कवि, लज्जावती दहाड़ रही है,

दर्शनदेवी लम्बा घूंघट काढ़ रही है।

कलीयुग में कैसे निभे पति-पत्नी का साथ,

चपलादेवी को मिले बाबू भोलानाथ।

 बाबू भोलानाथ, कहां तक कहें कहानी,

पंडित रामचंद्र की पत्नी राधारानी।

●  ‘काका’ लक्ष्मीनारायण की गृहणी रीता,

कृष्णचंद्र की वाइफ बनकर आई सीता।

अज्ञानी निकले निरे, पंडित ज्ञानीराम,

कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम।

 रक्खा दशरथ नाम, मेल क्या खुब मिलाया,

दूल्हा संतराम को आई दुलहिन माया।

●  ‘काका’ कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा

पार्वतीदेवी है शिवशंकर की अम्मा।

पूंछ न आधी इंच भी, कहलाते हनुमान,

मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर-कमान।

 घर में तीर-कमान, बदी करता है नेका,

तीर्थराज ने कभी इलाहाबाद न देखा।

●   सत्यपाल ‘काका’ की रकम डकार चुके हैं,

विजयसिंह दस बार इलैक्शन हार चुके हैं।

 सुखीरामजी अति दुखी, दुखीराम अलमस्त,

हिकमतराय हकीमजी रहें सदा अस्वस्थ।

रहें सदा अस्वस्थ, प्रभु की देखो माया,

प्रेमचंद में रत्ती-भर भी प्रेम न पाया।

 ●   कहं ‘काका’ जब व्रत-उपवासों के दिन आते,

त्यागी साहब, अन्न त्यागकार रिश्वत खाते।

रामराज के घाट पर आता जब भूचाल,

लुढ़क जायं श्री तख्तमल, बैठें घूरेलाल।

 बैठें घूरेलाल, रंग किस्मत दिखलाती,

इतरसिंह के कपड़ों में भी बदबू आती।

●   कहं ‘काका’, गंभीरसिंह मुंह फाड़ रहे हैं,

महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं।

 दूधनाथजी पी रहे सपरेटा की चाय,

गुरू गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय।

घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण-

मक्खन छोड़ डालडा खाते बृजनारायण।

●  ‘काका’, प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे,

हरिश्चंद्रजी झूठे केस लड़ाते देखे।

रूपराम के रूप की निन्दा करते मित्र,

चकित रह गए देखकर कामराज का चित्र।

●   कामराज का चित्र, थक गए करके विनती,

यादराम को याद न होती सौ तक गिनती,

कहं ‘काका’ कविराय, बड़े निकले बेदर्दी,

भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी।

●   नाम-धाम से काम का क्या है सामंजस्य?

किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य।

 झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिटें न रेखा,

स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा।

 कहं ‘काका’, कंठस्थ करो, यह बड़े काम की,

माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की ।।

 

अमंगल आचरण / काका हाथरसी

मात शारदे नतमस्तक हो, काका कवि करता यह प्रेयर

ऐसी भीषण चले चकल्लस, भागें श्रोता टूटें चेयर

वाक् युद्ध के साथ-साथ हो, गुत्थमगुत्था हातापाई

फूट जायें दो चार खोपड़ी, टूट जायें दस बीस कलाई

आज शनिश्चर का शासन है, मंगल चरण नहीं धर सकता

तो फिर तुम्हीं बताओ कैसे, मैं मंगलाचरण कर सकता

इस कलियुग के लिये एक आचार संहिता नई बना दो

कुछ सुझाव लाया हूँ देवी, इनपर अपनी मुहर लगा दो

सर्वोत्तम वह संस्था जिसमें पार्टीबंदी और फूट हो

कुशल राजनीतिज्ञ वही, जिसकी रग–रग में कपट झूठ हो

वह कैसा कवि जिसने अब तक, कोई कविता नहीं चुराई

भोंदू है वह अफसर जिसने, रिश्वत की हाँडी न पकाई

रिश्वत देने में शरमाए, वह सरमाएदार नहीं है

रिश्वत लेने में शरमाए, उसमें शिष्टाचार नहीं है

वह क्या नेता बन सकता है, जो चुनाव में कभी न हारे

क्या डाक्टर वह महीने भर में, पन्द्रह बीस मरीज़ न मारे

कलाकार वह ऊँचा है जो, बना सके हस्ताक्षर जाली

इम्तहान में नकल कर सके, वही छात्र है प्रतिभाशाली

जिसकी मुठ्ठी में सत्ता है, पारब्रह्म साकार वही है

प्रजा पिसे जिसके शासन में, प्रजातंत्र सरकार वही है

मँहगाई से पीड़ित कार्मचारियों को करने दो क्रंदन

बड़े वड़े भ्रष्टाचारी हैं, उनका करवाओ अभिनंदन

करें प्रदर्शन जो हड़ताली, उनपर लाठीचार्ज करा दो

लाठी से भी नहीं मरें तो, चूको मत, गोली चलवा दो

लेखक से लेखक टकराए, कवि को कवि से हूट करा दो

सभापति से आज्ञा लेकर, संयोजक को शूट करा 

कालिज स्टूडैंट / काका हाथरसी

फादर ने बनवा दिये तीन कोट¸ छै पैंट¸

लल्लू मेरा बन गया कालिज स्टूडैंट।

 कालिज स्टूडैंट¸ हुए होस्टल में भरती¸

दिन भर बिस्कुट चरें¸ शाम को खायें इमरती।

 कहें काका कविराय¸ बुद्धि पर डाली चादर¸

मौज कर रहे पुत्र¸ हडि्डयां घिसते फादर।

 पढ़ना–लिखना व्यर्थ हैं¸ दिन भर खेलो खेल¸

होते रहु दो साल तक फस्र्ट इयर में फेल।

 फस्र्ट इयर में फेल¸ जेब में कंघा डाला¸

साइकिल ले चल दिए¸ लगा कमरे का ताला।

 कहें काका कविराय¸ गेटकीपर से लड़कर¸

मुफ़्त सिनेमा देख¸ कोच पर बैठ अकड़कर।

 प्रोफ़ेसर या प्रिंसिपल बोलें जब प्रतिकूल¸

लाठी लेकर तोड़ दो मेज़ और स्टूल।

 मेज़ और स्टूल¸ चलाओ ऐसी हाकी

शीशा और किवाड़ बचे नहिं एकउ बाकी।

 कहें काका कवि राय¸ भयंकर तुमको देता¸

बन सकते हो इसी तरह बिगड़े दिल नेता

 

दहेज की बारात / काका हाथरसी

●  जा दिन एक बारात को मिल्यौ निमंत्रण-पत्र

फूले-फूले हम फिरें, यत्र-तत्र-सर्वत्र

यत्र-तत्र-सर्वत्र, फरकती बोटी-बोटी

बा दिन अच्छी नाहिं लगी अपने घर रोटी

कहँ ‘काका’ कविराय, लार म्हौंड़े सों टपके

कर लड़ुअन की याद, जीभ स्याँपन सी लपके

●  मारग में जब है गई अपनी मोटर फ़ेल

दौरे स्टेशन, लई तीन बजे की रेल

तीन बजे की रेल, मच रही धक्कम-धक्का

दो मोटे गिर परे, पिच गये पतरे कक्का

कहँ ‘काका’ कविराय, पटक दूल्हा ने खाई

पंडितजू रह गये, चढ़ि गयौ ननुआ नाई

●  नीचे को करि थूथरौ, ऊपर को करि पीठ

मुर्गा बनि बैठे हमहुँ, मिली न कोऊ सीट

मिली न कोऊ सीट, भीर में बनिगौ भुरता

फारि लै गयौ कोउ हमारो आधौ कुर्ता

कहँ ‘काका’ कविराय, परिस्थिति विकट हमारी

पंडितजी रहि गये, उन्हीं पे ‘टिकस’ हमारी

●  फक्क-फक्क गाड़ी चलै, धक्क-धक्क जिय होय

एक पन्हैया रह गई, एक गई कहुँ खोय

एक गई कहुँ खोय, तबहिं घुस आयौ टी-टी

मांगन लाग्यौ टिकस, रेल ने मारी सीटी

कहँ ‘काका’, समझायौ पर नहिं मान्यौ भैया

छीन लै गयौ, तेरह आना तीन रुपैया

●  जनमासे में मच रह्यौ, ठंडाई को सोर

मिर्च और सक्कर दई, सपरेटा में घोर

सपरेटा में घोर, बराती करते हुल्लड़

स्वादि-स्वादि में खेंचि गये हम बारह कुल्हड़

कहँ ‘काका’ कविराय, पेट हो गयौ नगाड़ौ

निकरौसी के समय हमें चढ़ि आयौ जाड़ौ

●  बेटावारे ने कही, यही हमारी टेक

दरबज्जे पे ले लऊँ नगद पाँच सौ एक

नगद पाँच सौ एक, परेंगी तब ही भाँवर

दूल्हा करिदौ बंद, दई भीतर सौं साँकर

कहँ ‘काका’ कवि, समधी डोलें रूसे-रूसे

अर्धरात्रि है गई, पेट में कूदें मूसे ।।

●  बेटीवारे ने बहुत जोरे उनके हाथ

पर बेटा के बाप ने सुनी न कोऊ बात

सुनी न कोऊ बात, बराती डोलें भूखे

पूरी-लड़ुआ छोड़, चना हू मिले न सूखे

कहँ ‘काका’ कविराय, जान आफत में आई

जम की भैन बरात, कहावत ठीक बनाई

●  समधी-समधी लड़ि परै, तै न भई कछु बात

चलै घरात-बरात में थप्पड़- घूँसा-लात

थप्पड़- घूँसा-लात, तमासौ देखें नारी

देख जंग को दृश्य, कँपकँपी बँधी हमारी

कहँ ‘काका’ कवि, बाँध बिस्तरा भाजे घर को

पीछे सब चल दिये, संग में लैकें वर को

●  मार भातई पै परी, बनिगौ वाको भात

बिना बहू के गाम कों, आई लौट बरात

आई लौट बरात, परि गयौ फंदा भारी

दरबज्जै पै खड़ीं, बरातिन की घरवारीं

कहँ काकी ललकार, लौटकें वापिस जाऔ

बिना बहू के घर में कोऊ घुसन न पाऔ

●  हाथ जोरि माँगी क्षमा, नीची करकें मोंछ

काकी ने पुचकारिकें, आँसू दीन्हें पोंछ

आँसू दीन्हें पोंछ, कसम बाबा की खाई

जब तक जीऊँ, बरात न जाऊँ रामदुहाई

कहँ ‘काका’ कविराय, अरे वो बेटावारे

अब तो दै दै, टी-टी वारे दाम हमारे ।।

आई में आ गए / काका हाथरसी

सीधी नजर हुयी तो सीट पर बिठा गए।

 टेढी हुयी तो कान पकड कर उठा गये।

 सुन कर रिजल्ट गिर पडे दौरा पडा दिल का।

 डाक्टर इलेक्शन का रियेक्शन बता गये ।

 अन्दर से हंस रहे है विरोधी की मौत पर।

 ऊपर से ग्लीसरीन के आंसू बहा गये ।

 भूंखो के पेट देखकर नेताजी रो पडे ।

 पार्टी में बीस खस्ता कचौडी उडा गये ।

 जब देखा अपने दल में कोई दम नही रहा ।

 मारी छलांग खाई से “आई“ में आ गये ।

 करते रहो आलोचना देते रहो गाली

 मंत्री की कुर्सी मिल गई गंगा नहा गए ।

 काका ने पूछा साहब ये लेडी कौन है

थी प्रेमिका मगर उसे सिस्टर बता गए ।।

नाम-रूप का भेद / काका हाथरसी

नाम- रूप के भेद पर कभी किया है ग़ौर

नाम मिला कुछ और तो शक्ल-अक्ल कुछ और

 शक्ल-अक्ल कुछ और नयनसुख देखे काने

 बाबू सुंदरलाल बनाये ऐंचकताने

 कहँ ‘ काका कवि , दयाराम जी मारें मच्छर

 विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर

 मुंशी चंदालाल का तारकोल सा रूप

 श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप

 जैसे खिलती धूप , सजे बुश्शर्ट पैंट में

ज्ञानचंद छै बार फ़ेल हो गये टैंथ में

 कहँ ‘ काका ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे

 पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे

 देख अशर्फ़ीलाल के घर में टूटी खाट

 सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ

 मील चल रहे आठ , करम के मिटें न लेखे

 धनीराम जी हमने प्रायः निर्धन देखे

 कहँ ‘ काका कवि , दूल्हेराम मर गये कुँवारे

 बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बेचारे

 पेट न अपना भर सके जीवन भर जगपाल

 बिना सूँड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल

 मिलें गणेशीलाल , पैंट की क्रीज़ सम्हारी

 बैग कुली को दिया , चले मिस्टर गिरधारी

 कहँ ‘ काका कविराय , करें लाखों का सट्टा

 नाम हवेलीराम किराये का है अट्टा

 चतुरसेन बुद्धू मिले , बुद्धसेन निर्बुद्ध

 श्री आनंदीलाल जी रहें सर्वदा क्रुद्ध

 रहें सर्वदा क्रुद्ध , मास्टर चक्कर खाते

 इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते

 कहँ ‘ काका , बलवीर सिंह जी लटे हुये हैं

 थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुये हैं

 बेच रहे हैं कोयला , लाला हीरालाल

 सूखे गंगाराम जी , रूखे मक्खनलाल

 रूखे मक्खनलाल , झींकते दादा-दादी

 निकले बेटा आशाराम निराशावादी

 कहँ ‘ काका कवि , भीमसेन पिद्दी से दिखते

 कविवर ‘ दिनकर ’ छायावदी कविता लिखते

 तेजपाल जी भोथरे , मरियल से मलखान

 लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान

 करी न कौड़ी दान , बात अचरज की भाई

 वंशीधर ने जीवन – भर वंशी न बजाई

 कहँ ‘ काका कवि , फूलचंद जी इतने भारी

 दर्शन करते ही टूट जाये कुर्सी बेचारी

 खट्टे – खारी – खुरखुरे मृदुलाजी के बैन

मृगनयनी के देखिये चिलगोजा से नैन

 चिलगोजा से नैन , शांता करतीं दंगा

नल पर नहातीं , गोदावरी , गोमती , गंगा

 कहँ ‘ काका कवि , लज्जावती दहाड़ रही हैं

 दर्शन देवी लंबा घूँघट काढ़ रही हैं

ज्ञानी निकले निरे पंडित ज्ञानीराम

कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम

रक्खा दशरथ नाम , मेल क्या खूब मिलाया

 दूल्हा संतराम को आई दुल्हन माया

काका कोई-कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा

 पार्वती देवी हैं शिवशंकर की अम्मा ।।

 

जम और जमाई / काका हाथरसी 

बड़ा भयंकर जीव है , इस जग में दामाद

 सास – ससुर को चूस कर, कर देता बरबाद

 कर देता बरबाद , आप कुछ पियो न खाओ

 मेहनत करो , कमाओ , इसको देते जाओ

 कहॅं ‘ काका कविराय , सासरे पहुँची लाली

 भेजो प्रति त्यौहार , मिठाई भर- भर थाली

 लल्ला हो इनके यहाँ , देना पड़े दहेज

 लल्ली हो अपने यहाँ , तब भी कुछ तो भेज

 तब भी कुछ तो भेज , हमारे चाचा मरते

 रोने की एक्टिंग दिखा , कुछ लेकर टरते

‘ काका स्वर्ग प्रयाण करे , बिटिया की सासू

 चलो दक्षिणा देउ और टपकाओ आँसू

 जीवन भर देते रहो , भरे न इनका पेट

 जब मिल जायें कुँवर जी , तभी करो कुछ भेंट

 तभी करो कुछ भेंट , जँवाई घर हो शादी

 भेजो लड्डू , कपड़े, बर्तन, सोना – चाँदी

 कहॅं ‘ काका , हो अपने यहाँ विवाह किसी का

 तब भी इनको देउ , करो मस्तक पर टीका

 कितना भी दे दीजिये , तृप्त न हो यह शख़्श

 तो फिर यह दामाद है अथवा लैटर बक्स ?

अथवा लैटर बक्स , मुसीबत गले लगा ली

 नित्य डालते रहो , किंतु ख़ाली का ख़ाली

 कहँ ‘ काका कवि , ससुर नर्क में सीधा जाता

 मृत्यु – समय यदि दर्शन दे जाये जमाता

 और अंत में तथ्य यह कैसे जायें भूल

 आया हिंदू कोड बिल , इनको ही अनुकूल

 इनको ही अनुकूल , मार कानूनी घिस्सा

 छीन पिता की संपत्ति से , पुत्री का हिस्सा

‘ काका एक समान लगें , जम और जमाई

 फिर भी इनसे बचने की कुछ युक्ति न पाए ।।

नगरपालिका वर्णन / काका हाथरसी

पार्टी बंदी हों जहाँ , घुसे अखाड़ेबाज़

 मक्खी , मच्छर , गंदगी का रहता हो राज

 का रहता हो राज , सड़क हों टूटी – फूटी

 नगरपिता मदमस्त , छानते रहते बूटी

 कहँ ‘ काका कविराय , नहीं वह नगरपालिका

 बोर्ड लगा दो उसके ऊपर ‘ नरकपालिका ।।

हिंदी की दुर्दशा / काका हाथरसी

बटुकदत्त से कह रहे, लटुकदत्त आचार्य

 सुना? रूस में हो गई है हिंदी अनिवार्य

 है हिंदी अनिवार्य, राष्ट्रभाषा के चाचा-

बनने वालों के मुँह पर क्या पड़ा तमाचा

 कहँ काका , जो ऐश कर रहे रजधानी में

 नहीं डूब सकते क्या चुल्लू भर पानी में

 पुत्र छदम्मीलाल से, बोले श्री मनहूस

 हिंदी पढ़नी होये तो, जाओ बेटे रूस

 जाओ बेटे रूस, भली आई आज़ादी

 इंग्लिश रानी हुई हिंद में, हिंदी बाँदी

 कहँ काका कविराय, ध्येय को भेजो लानत

 अवसरवादी बनो, स्वार्थ की करो वक़ालत ।।

आपने क्या सीखा

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